Friday, September 28, 2007

यह वह जार्ज नहीं है

उसदोपहर में बहनजी की बातों में एक किस्‍सा यह भी था ।
...मेरी बेटी तो पढ़ाई लिखाई के अलावा कुछ करती ही नहीं है। जब हमलोग वहां गए थे बहुत खराब लगता था। हमने देखा कि वह अपने रीडिंग डेस्‍क पर जमी रहती है और जार्ज किचेन में हैं। मैंने उसको टोका भी लेकिन उसका कहना था कि मेरा इस काम में मन ही नहीं लगता मां।
ठीक ही कह रही थी वह। बचपन से वह ऐसी ही है। छूकर किचेन का काम नहीं। पता नहीं कहां से यह बात उसके मन में घर कर गयी। कहती थी उसका बस चले तो घर की डिजाइन से किचेन की जगह हटा दे। घर से हॉस्‍टल गयी तो वहां जरूरत ही नहीं पड़ी। डर लगता था कि शादी हुई तो फिर कैसे निभेगी इसकी। लेकिन ईश्‍वर सबके लिए कुछ न कुछ सोचता है। अब देखो उसको ऐसा घर मिला जिसमें इस बात को लेकर कोई बहस ही नहीं है। सिर्फ जार्ज ही नहीं उसके भाई, उसके पिता भी किचेन में लगे रहते हैं। और किसी दबाव में नहीं मजे से। अपने यहां किस घर में ऐसा संभव है...
मुझसे तो रहा नहीं गया। अपने यहां किचेन तो औरतों की नाभिनाल से बंधा है। बिना उसके सुबह शाम ही नहीं होती। तुमलोगों की उम्र में तो पता नहीं लेकिन हम जिस उम्र में बड़े हुए हैं उसमें तो हमारी दुनिया की कल्‍पना ही इसके बगैर नहीं की जा सकती थी। जैसे औरत का मतलब ही किचेन होता हो।
तुमलोगों से ऐसा अब कह पा रही हूं। लेकिन अपना काम तो उसके बगैर चला नहीं। ना ही उसके बिना दिन कटता है। ... पुरुषों को किचेन में खटर पटर करते देख उठ कर गयी उस तरफ। लेकिन वहां करूं क्‍या ? वहां का खान पान ही अलग है। अपना साजो समान भी वहां नहीं। उपर से उसके घरवाले दौड़ पड़े .... नो ... नो ....अब उनसे कैसे कहूं कि बैठे बैठे उब्‍ा होने लगी है। कितना टीवी देखो कितना घूमो। कड़छी, बेलन के बिना अपना जीवन कितना अधूरा लगने लगता है। ऐसा लगता है कि जन्‍म ही उनके साथ हुआ है । कि जहां आराम भी है वहां ये मन में खटकते रहते हैं।
बहनजी के अमेरिकी प्रवास में किचेन प्रसंग हम देर तक सुनते रहे। उन्‍होंने इस प्रसंग का अंत इस तरह किया --- बिल्‍कुल अनोखा परिवार है मिला है बेटी को। जार्ज के एक भाई ने सिर्फ इसलिए विवाह नहीं किया कि अपने नानाजी की देखभाल करेगा। नानाजी अस्‍सी पार कर गए हैं। उनका सारा काम करता है। और खुश है। मुझे तो अब अपने यहां यकीन नहीं होता कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए कोई अपना जीवन दांव पर लगाएगा। दूसरों की सेवा को ही अपना जीवन मान लेगा।
यहां बार बार जिस जार्ज का नाम आ रहा था वह बहन जी का दामाद है । है वह अमेरिकी ही लेकिन कुछ अलग ।

Friday, September 7, 2007

एक थकी दोपहर

भोज समाप्‍त हुआ। लोगों की बिदाई हो चुकी। लेकिन बहनजी अभी बैठी थीं। बार बार कह रही थीं मेरी जाने की चिंता नहीं करो। जाहिर था अभी उनके बैठने का मन था। कोई आपके साथ बैठना चाहे तो भला मना कैसे कर सकते हैं। वह भी तब जब आपने खुद आमंत्रित किया हो।
बातों में से बातें निकलती जाती हैं। गप या अड्डेबाजी इसी को शायद कहत हैं। कार्यक्रम के बाद मेजबानों के चेहरे पर थकान पढ़ी जा सकती थी। और बहनजी इस बात से अनभिज्ञ नहीं थीं। बल्कि सब की सावधान उबासियों को पढ़कर वह कहती जा रहीं थीं कि तुमलोंगों की दोपहर की नींद खराब कर रही हूं।
और उनकी बातें जारी थीं। ----- बेटी विदेश में है, अपने परिवार में खुश है। बेटा रेडियो जॉकी है, घर से दूर रहता है। और उनसे तो बात ही नहीं होती। दिन भर में दो चार वाक्‍य। बाकी उनका समय अपने पेड़ पौधों के साथ बीतता रहता है।

यानी बिल्‍कुल पौधों जैसे हो गए हैं ----
हां, खाना बन गया है आ जाओ यही मेरा वाक्‍य होता है। या फिर खाना बन गया क्‍या उनका वाक्‍य।
यह ऐसा समय है उम्र का कि समय काटे नहीं कटता। एक समय था, बच्‍चे छोटे थे, घर-गिरस्‍ती नई थी तो टाइम कैसे बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। लेकिन अब ---- वह हम श्रोताओं की तरु देखती रहीं।
पहले बेटी,फिर बेटा और बाद में पति की बातें। दोस्‍तों की भी अपनी दुनिया है सब नाती पोतों में लगे हैं। जाओ भी तो किसके पास।
तो मेरे पास कुछ बचपन की आदते हैं। किताबें, संगीत लेकिन वह भी कितना समय लेंगी। टीवी पर ऐसा कुछ आता नहीं तो देखते रहो। अब जो भी कार्यक्रम आतें हैं तुमसब जानते हो क्‍या आ रहे हैं। बाकी बाजार होता है सब्‍जी वाला दूधवाला बाजार में चले जाओ तो बहुत सारी चीजे होती हैं। सब्जियां चुनने और नए सामानो की ताकिद करने में उनके बारे में जानने में अच्‍छा वक्‍त निकल जाता है।
लेकिन सबसे अच्‍छा होता है आत्‍मीय लोगों के साथ बैठना बतियाना। गांव घर से दूर अजनबी शहर में सब ऐसे बिखरे हुए हैं कि किसी शहर में किसी दोपहर में किसी आत्‍मीय का मिलना कितना कठिन है।
चलती हूं मैं। बहुत सारा समय लिया और तुमलोगों की अच्‍छी नींद छीनी, लेकिन इतनी देर तुमलोगों के साथ बैठना अच्‍छा लगा। बुढ़ापे की ऐसी दोपहर खूब याद रहेगी। तुमलोगों के पास समय ता नहीं है लेकिन मौका लगे तो आना एक दिन----

Monday, September 3, 2007

जाति जनेउ

भाई साब आज थोड़ सहज थे। चेहरा खिला हुआ था। और सचमुच मुस्‍कुरा रहे थे। मिलते ही हाथ बढ़ाया आओ भई क्‍या खबर है ?
आज सुबह उठना सार्थक रहा। टहलान में कोई तनाव नहीं होगा, मैंने सोचा।
शादी हो गयी है तुम्‍हारी ?
अचानक इस प्रश्‍न के लिए अपनी तैयारी नहीं थी। मैं थोड़ी देर रुका रहा ----
भाईसाब ने इंतजार नहीं किया मेरे उत्‍तर का ।
नहीं बताना चाहते हो तो कोई बात नहीं । मैंने तुम्‍हारी जाति नहीं पूछी है। शादी जिंदगी का बहुत अ‍हम फैसला है। कहावत है कि खेलो, कूदो, मौज करो लेकिन शादी के लिए उसे ही चुनना जिसके साथ बूढ़े हो सकते हो। क्‍या सबके साथ या फिर किसी के भी साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है।
उन्‍होंने मेरी ओर देखा और कहा बोलते कम हो यार।
मैंने मन ही मन सोचा भाईसाब आज फार्म में हैं उन्‍हें बोलने दिया जाए। आपलोगों में से किसी ने लिखा था कि बोलना या चुप रहना कोई स्‍थाई भाव नहीं है। जो एक दिन चुप रहता है अचानक ही किसी दिन बोलना शुरू कर देता है और हमेशा बोलने वाला भी कभी कभार चुप्‍पी साध लेता है। भाई साब आज बोल रहे थे। बिना किसी सवाल के। स्‍वत:स्‍फूर्त।
--- किसी के भी साथ बूढ़ा नहीं हुआ जा सकता। इसलिए आप चुनते हैं। शादी कोई शारीरिक, सामाजिक बंधन भर नहीं है वह एक आध्‍यात्मिक यात्रा भी है। स्‍पीरिचुअल जर्नी -- उन्‍होंने तपाक से अनुवाद किया। सिर्फ तन की नहीं मन और आत्‍मा की यात्रा--- जिसके साथ यह यात्रा की जा सकती है उसी के साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है।
---- बहुत कठिन लग रही होंगी ये बातें। लेकिन यह बहुत आसान है। अगर आप अंदर से साफ हैं। तो ऐसे किसी को चुनना कठिन नहीं है। वह मिलेगा और आप बंध जाएंगे। ऐसे कि बहुत पहले से मिले हुए हैं, कि उसमें और आपमें कोई दूरी नहीं है, ऐसे बंधन में किसी गांठ या रिचुअल की जरूरत नहीं होती है---
इस कड़ी में बहुत सारी उपमाएं और कडि़यां थीं तो बाग के कई चक्‍करों में चलती रही। अरविंद और मां आईं, गांधी और मीरा की चर्चा हुइ मुझे लगा भाइसाब आज ओशो को पढ़कर या सुनकर आएं है।
कैसा रहा ?
अचानक उनके इस सवाल ने मुझे वापस उनकी बातों पर बुला लिया।
--- इन बातों ने मुझे बहुत गहरे तक छुआ था। और ऐसी ही तलाश में भी था। कि सुबह के साथ घर में सितार की धून गूंजे। शाम को राग यमन के साथ रिलैक्‍स हों। और बाकी दिन ------
यह भी एक लंबी फेहरिश्‍त थी।
चुनाव ठीक ही था। जाति, धर्म और क्षेत्र के बाड़े से अलग। अपना चुना हुआ। और यह कोई बुरा नहीं है। लेकिन मुझे यह लगता है और इसे कई लेखकों ने लिखा है अभी अल्‍केमिस्‍ट में भी उस लेखक ने एक जगह कहा है कि अपनी भाषा, क्षेत्र और जाति का संगी हो तो बहुत कुछ करना नहीं पड़ता। हर संवाद की पृष्‍ठभूमि नहीं बननी पड़ती बिना कहे ही बहुत कुछ कहा सुना जा सकता है। इसलिए ---
मुझे लगा वे हे अर्जुन ना कह दें। लेकिन उनके कहने से पहले भी बहुत कुछ समझ में आ गया था। आप बराबरी के सपने देखो, आदर्श समाज की कल्‍पना करो लेकिन उसके लिए जो दर्द झेलना पड़ता है वह मत लो । मौका आए तो पतली गली से निकल जाओ। इसको कहते हैं चूल्‍हे की बात कुछ और चौके की बात कुछ और---। कई बार ऐसा लगता है कि जो बोला या लिखा जा रहा है उसमें से बहुत का महत्‍व इसीलिए घट गया है या फिर वह किताबी और मंचीय हो कर रह जाता है क्‍योंकि वह हमारे व्‍यवहार में कहीं नहीं होता।