tag:blogger.com,1999:blog-60780832037250377132023-06-20T06:59:33.045-07:00Bhaisab भाई साहबलाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-5470358055575922922007-09-28T05:02:00.000-07:002007-09-29T10:29:04.109-07:00यह वह जार्ज नहीं है<strong>उस</strong>दोपहर में बहनजी की बातों में एक किस्सा यह भी था । <br />...मेरी बेटी तो पढ़ाई लिखाई के अलावा कुछ करती ही नहीं है। जब हमलोग वहां गए थे बहुत खराब लगता था। हमने देखा कि वह अपने रीडिंग डेस्क पर जमी रहती है और जार्ज किचेन में हैं। मैंने उसको टोका भी लेकिन उसका कहना था कि मेरा इस काम में मन ही नहीं लगता मां। <br />ठीक ही कह रही थी वह। बचपन से वह ऐसी ही है। छूकर किचेन का काम नहीं। पता नहीं कहां से यह बात उसके मन में घर कर गयी। कहती थी उसका बस चले तो घर की डिजाइन से किचेन की जगह हटा दे। घर से हॉस्टल गयी तो वहां जरूरत ही नहीं पड़ी। डर लगता था कि शादी हुई तो फिर कैसे निभेगी इसकी। लेकिन ईश्वर सबके लिए कुछ न कुछ सोचता है। अब देखो उसको ऐसा घर मिला जिसमें इस बात को लेकर कोई बहस ही नहीं है। सिर्फ जार्ज ही नहीं उसके भाई, उसके पिता भी किचेन में लगे रहते हैं। और किसी दबाव में नहीं मजे से। अपने यहां किस घर में ऐसा संभव है...<br />मुझसे तो रहा नहीं गया। अपने यहां किचेन तो औरतों की नाभिनाल से बंधा है। बिना उसके सुबह शाम ही नहीं होती। तुमलोगों की उम्र में तो पता नहीं लेकिन हम जिस उम्र में बड़े हुए हैं उसमें तो हमारी दुनिया की कल्पना ही इसके बगैर नहीं की जा सकती थी। जैसे औरत का मतलब ही किचेन होता हो। <br />तुमलोगों से ऐसा अब कह पा रही हूं। लेकिन अपना काम तो उसके बगैर चला नहीं। ना ही उसके बिना दिन कटता है। ... पुरुषों को किचेन में खटर पटर करते देख उठ कर गयी उस तरफ। लेकिन वहां करूं क्या ? वहां का खान पान ही अलग है। अपना साजो समान भी वहां नहीं। उपर से उसके घरवाले दौड़ पड़े .... नो ... नो ....अब उनसे कैसे कहूं कि बैठे बैठे उब्ा होने लगी है। कितना टीवी देखो कितना घूमो। कड़छी, बेलन के बिना अपना जीवन कितना अधूरा लगने लगता है। ऐसा लगता है कि जन्म ही उनके साथ हुआ है । कि जहां आराम भी है वहां ये मन में खटकते रहते हैं। <br />बहनजी के अमेरिकी प्रवास में किचेन प्रसंग हम देर तक सुनते रहे। उन्होंने इस प्रसंग का अंत इस तरह किया --- बिल्कुल अनोखा परिवार है मिला है बेटी को। जार्ज के एक भाई ने सिर्फ इसलिए विवाह नहीं किया कि अपने नानाजी की देखभाल करेगा। नानाजी अस्सी पार कर गए हैं। उनका सारा काम करता है। और खुश है। मुझे तो अब अपने यहां यकीन नहीं होता कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए कोई अपना जीवन दांव पर लगाएगा। दूसरों की सेवा को ही अपना जीवन मान लेगा। <br />यहां बार बार जिस जार्ज का नाम आ रहा था वह बहन जी का दामाद है । है वह अमेरिकी ही लेकिन कुछ अलग ।लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-89120495800369094192007-09-07T04:26:00.000-07:002007-09-07T04:58:47.422-07:00एक थकी दोपहरभोज समाप्त हुआ। लोगों की बिदाई हो चुकी। लेकिन बहनजी अभी बैठी थीं। बार बार कह रही थीं मेरी जाने की चिंता नहीं करो। जाहिर था अभी उनके बैठने का मन था। कोई आपके साथ बैठना चाहे तो भला मना कैसे कर सकते हैं। वह भी तब जब आपने खुद आमंत्रित किया हो। <br />बातों में से बातें निकलती जाती हैं। गप या अड्डेबाजी इसी को शायद कहत हैं। कार्यक्रम के बाद मेजबानों के चेहरे पर थकान पढ़ी जा सकती थी। और बहनजी इस बात से अनभिज्ञ नहीं थीं। बल्कि सब की सावधान उबासियों को पढ़कर वह कहती जा रहीं थीं कि तुमलोंगों की दोपहर की नींद खराब कर रही हूं। <br />और उनकी बातें जारी थीं। ----- बेटी विदेश में है, अपने परिवार में खुश है। बेटा रेडियो जॉकी है, घर से दूर रहता है। और उनसे तो बात ही नहीं होती। दिन भर में दो चार वाक्य। बाकी उनका समय अपने पेड़ पौधों के साथ बीतता रहता है। <br /><br />यानी बिल्कुल पौधों जैसे हो गए हैं ----<br />हां, खाना बन गया है आ जाओ यही मेरा वाक्य होता है। या फिर खाना बन गया क्या उनका वाक्य। <br />यह ऐसा समय है उम्र का कि समय काटे नहीं कटता। एक समय था, बच्चे छोटे थे, घर-गिरस्ती नई थी तो टाइम कैसे बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। लेकिन अब ---- वह हम श्रोताओं की तरु देखती रहीं। <br />पहले बेटी,फिर बेटा और बाद में पति की बातें। दोस्तों की भी अपनी दुनिया है सब नाती पोतों में लगे हैं। जाओ भी तो किसके पास। <br />तो मेरे पास कुछ बचपन की आदते हैं। किताबें, संगीत लेकिन वह भी कितना समय लेंगी। टीवी पर ऐसा कुछ आता नहीं तो देखते रहो। अब जो भी कार्यक्रम आतें हैं तुमसब जानते हो क्या आ रहे हैं। बाकी बाजार होता है सब्जी वाला दूधवाला बाजार में चले जाओ तो बहुत सारी चीजे होती हैं। सब्जियां चुनने और नए सामानो की ताकिद करने में उनके बारे में जानने में अच्छा वक्त निकल जाता है। <br />लेकिन सबसे अच्छा होता है आत्मीय लोगों के साथ बैठना बतियाना। गांव घर से दूर अजनबी शहर में सब ऐसे बिखरे हुए हैं कि किसी शहर में किसी दोपहर में किसी आत्मीय का मिलना कितना कठिन है। <br />चलती हूं मैं। बहुत सारा समय लिया और तुमलोगों की अच्छी नींद छीनी, लेकिन इतनी देर तुमलोगों के साथ बैठना अच्छा लगा। बुढ़ापे की ऐसी दोपहर खूब याद रहेगी। तुमलोगों के पास समय ता नहीं है लेकिन मौका लगे तो आना एक दिन----लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-86091835845083690302007-09-03T02:19:00.000-07:002007-09-03T03:13:14.646-07:00जाति जनेउभाई साब आज थोड़ सहज थे। चेहरा खिला हुआ था। और सचमुच मुस्कुरा रहे थे। मिलते ही हाथ बढ़ाया आओ भई क्या खबर है ?<br />आज सुबह उठना सार्थक रहा। टहलान में कोई तनाव नहीं होगा, मैंने सोचा। <br />शादी हो गयी है तुम्हारी ? <br />अचानक इस प्रश्न के लिए अपनी तैयारी नहीं थी। मैं थोड़ी देर रुका रहा ----<br />भाईसाब ने इंतजार नहीं किया मेरे उत्तर का । <br />नहीं बताना चाहते हो तो कोई बात नहीं । मैंने तुम्हारी जाति नहीं पूछी है। शादी जिंदगी का बहुत अहम फैसला है। कहावत है कि खेलो, कूदो, मौज करो लेकिन शादी के लिए उसे ही चुनना जिसके साथ बूढ़े हो सकते हो। क्या सबके साथ या फिर किसी के भी साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है। <br />उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा बोलते कम हो यार।<br />मैंने मन ही मन सोचा भाईसाब आज फार्म में हैं उन्हें बोलने दिया जाए। आपलोगों में से किसी ने लिखा था कि बोलना या चुप रहना कोई स्थाई भाव नहीं है। जो एक दिन चुप रहता है अचानक ही किसी दिन बोलना शुरू कर देता है और हमेशा बोलने वाला भी कभी कभार चुप्पी साध लेता है। भाई साब आज बोल रहे थे। बिना किसी सवाल के। स्वत:स्फूर्त। <br />--- किसी के भी साथ बूढ़ा नहीं हुआ जा सकता। इसलिए आप चुनते हैं। शादी कोई शारीरिक, सामाजिक बंधन भर नहीं है वह एक आध्यात्मिक यात्रा भी है। स्पीरिचुअल जर्नी -- उन्होंने तपाक से अनुवाद किया। सिर्फ तन की नहीं मन और आत्मा की यात्रा--- जिसके साथ यह यात्रा की जा सकती है उसी के साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है। <br />---- बहुत कठिन लग रही होंगी ये बातें। लेकिन यह बहुत आसान है। अगर आप अंदर से साफ हैं। तो ऐसे किसी को चुनना कठिन नहीं है। वह मिलेगा और आप बंध जाएंगे। ऐसे कि बहुत पहले से मिले हुए हैं, कि उसमें और आपमें कोई दूरी नहीं है, ऐसे बंधन में किसी गांठ या रिचुअल की जरूरत नहीं होती है--- <br />इस कड़ी में बहुत सारी उपमाएं और कडि़यां थीं तो बाग के कई चक्करों में चलती रही। अरविंद और मां आईं, गांधी और मीरा की चर्चा हुइ मुझे लगा भाइसाब आज ओशो को पढ़कर या सुनकर आएं है। <br />कैसा रहा ? <br />अचानक उनके इस सवाल ने मुझे वापस उनकी बातों पर बुला लिया। <br />--- इन बातों ने मुझे बहुत गहरे तक छुआ था। और ऐसी ही तलाश में भी था। कि सुबह के साथ घर में सितार की धून गूंजे। शाम को राग यमन के साथ रिलैक्स हों। और बाकी दिन ------<br />यह भी एक लंबी फेहरिश्त थी। <br />चुनाव ठीक ही था। जाति, धर्म और क्षेत्र के बाड़े से अलग। अपना चुना हुआ। और यह कोई बुरा नहीं है। लेकिन मुझे यह लगता है और इसे कई लेखकों ने लिखा है अभी अल्केमिस्ट में भी उस लेखक ने एक जगह कहा है कि अपनी भाषा, क्षेत्र और जाति का संगी हो तो बहुत कुछ करना नहीं पड़ता। हर संवाद की पृष्ठभूमि नहीं बननी पड़ती बिना कहे ही बहुत कुछ कहा सुना जा सकता है। इसलिए ---<br />मुझे लगा वे हे अर्जुन ना कह दें। लेकिन उनके कहने से पहले भी बहुत कुछ समझ में आ गया था। आप बराबरी के सपने देखो, आदर्श समाज की कल्पना करो लेकिन उसके लिए जो दर्द झेलना पड़ता है वह मत लो । मौका आए तो पतली गली से निकल जाओ। इसको कहते हैं चूल्हे की बात कुछ और चौके की बात कुछ और---। कई बार ऐसा लगता है कि जो बोला या लिखा जा रहा है उसमें से बहुत का महत्व इसीलिए घट गया है या फिर वह किताबी और मंचीय हो कर रह जाता है क्योंकि वह हमारे व्यवहार में कहीं नहीं होता।लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-56412886541189352442007-08-30T04:42:00.000-07:002007-08-30T04:54:39.780-07:00सेटल्ड होनाभाईसाब को लगता है कि उनके साथ जो हो रहा है वह सिर्फ उन्हीं के साथ होता है। बाकी लोग दुनिया में कितने खुश हैं। घर-परिवार, नौकरी। उनकी उम्र के लोगों के पास सबकुछ है। सबकुछ यानी सेटल्ड, पूछने पर वे यही शब्द इस्तेमाल करते हैं। और व्याख्या कुछ इस तरह कि सेटल्ड मायने घर, बीवी, बच्चे, गाड़ी, दफ्तर । समय से ऑफिस जाना-आना । कोई झंझट नहीं । सबकुद स्मूदली चल रहा हो। जब वे हो कहते हैं तो उनकी आखों में एक अजीब सा खालीपन होता है। यही वही खालीपन है जो उन्हें टीसता रहता है। संग के लोग न जाने कहां कहां पहुंच गए। और हम ---- वे जो कहते हैं वैसा कहना ठीक नहीं लग रहा है लेकिन ना कहें तो बेईमानी होगी -- यहीं गटर में पड़े हैं। <br />यह बात अच्छी तरह से जानी हुई है कि भाईसाब गटर में कतई नहीं हैं। लेकिन उन्होंने मान लिया है कि उनकी जो जिन्दगी है वह गटर है अगर दुनिया में कहीं नरक है तो बस उनके आस-पास ही है। बाकी तो बस स्वर्ग है। <br />-- चालीसा लगने वाला है। ना तो ढंग की चाकरी और ना ही कोई उद्देश्य। वह भी होता तो चल जाता। कुछ तो दुनिया के काम आते। लेकिन ऐसे मायाजाल में फंसे कि पूछो मत। ना निगलते बन रहा है ना उगलते। ना आर ना पार -- ऐसा कहते हुए वे चुप हो जाते हैं। कुछ गहरे उतरकर सोचते हैं, कोई बात तो निकले -- शायद पहले कहे गए दो जुमलों जैसा ही कोई और जुमला ढूंढ रहे हैं -- आपके पास इससे मिलता जुल्ाता कुछ हो तो उन्हें बताइयेगा।लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-16743841575009378862007-08-03T22:36:00.000-07:002007-08-03T23:07:50.058-07:00उमसभाई साब पूरे दिन बेचैन रहे। क्या करें कहां जाएं। घर मं उमस थी। ध्यान दीजिएगा घर में उमस थी। जब उन्होंने खुद से ही ऐसा कहा तो लगा कि गलत कह रहे हों। बाहर मौसम अच्छा था हवा चल रही थी। और दिल्ली के मन के विपरीत बाहर निकलकर आदमी थोड़ा सुकुन से टहल सकता था। लेकिन भाईसाब बाहर नहीं निकल पा रहे थे। ऐसी कोई बात नहीं थी कि दरवाजा न खोल सकें या खुद टहल नहीं सकते थे। परंतु अजीब सी स्थति में जकड़े हुए थे। यह कोई बाहरी आकलन नहीं था वह खुद भी अपनी बातों में इस अनुभव की चर्चा कर चुके थे। वह अक्सर चुप रहते। लेकिन उन्हें गौर से कोई देखे तो लगेगा कि वे हमेशा कुछ कहना चाह रहे हैं। लेकिन बात बाहर नहीं आ पा रही है। <br />एक दिन उन्होंने अपनी डायरी निकालीं। बल्कि बहुत सारी डायरियां निकाली और सामने रखते गए। हर साल की फरवरी में उनकी डायरी की शुरुआत होती थी और कुल जमा चार दिनों की लिखाई के बाद समाप्त। <br />यह क्या है भाईसाब <br />डायरी का मतलब ऐसा तो कहीं नहीं है कि हमेशा सर्वश्रेष्ठ ही दर्ज किया जाए। या फिर आप खुद सर्वश्रेष्ठ की कल्पना भी कैसे कर सकते? आप तो बस लिख सकते हैं जैसा अपने देखा जैसा आपने महसूस किया। और इतनी लंबी उम्र इतने संसाधन, इतने मैके फिर भी कोरे पन्ने? <br />अपने आप को कबीर मानते होंगे, मन में कौतुक जागा। लेकिन व्यक्त नहीं कर सका। पता नहीं बुरा मान जाएं। <br />पन्ने पलट रहा था वे कहने लगे। पिछले संस्थान में जहां काम करता था। बड़े आत्मीय और सच्चे लोग थे। आंखें देखकर समझ जाते थे - एक ने कहा था। तुम्हें देखकर ऐसा लगता है कि बहुत भीतर कहीं फंसे हुए हो। <br />--- और आपने मान लिया कि सचमुच फंसे हुए हैं। भाईसाब निर्भार हो जाइए। यह तो एकदम से वैसे लोगों की बात है जिनके सामने किसी समस्या का नाम लो , बीमारी का नाम लो, कोई अनुभव रखो तपाक से बोलते हैं - हां, मुझे भी ऐसा है, मैं भी यह महसूस करता हूं। अब पता नहीं कितने बरसों पहले किसी ने कहा कि आप अंदर से कहीं फंसे हुए लगते हो और आपने मान लिया। मान ही नहीं लिया पकइ़कर बैठ गए। ---<br />उनके चेहरे पर हल्की सी हंसी आई। उसी तरह जैसे वह हंसना तो खुल कर चाहते थे लेकिन वह खुलकर हंसना कहीं अंटक गया और उसके धक्के भर से चेहरे पर एक मुस्कान भर तैर गई। <br />भाईसाब आप हंसते हुए खूबसूरत लगते हैं। और बोलते हैं तो बिल्कुल सहज। आप लिखेंगे तो बहुत लोग मुक्त हो सकेंगे। लिखिए अपनी मुक्ति के लिए न सही औरों के लिए ही। बेलाग लिखिए। बेहिचक लिखिए। बिंदास लिखिए। <br />और आज कल मैं भाईसाब के लिखने का इंतजार कर रहा हूं।लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-19899063858173740872007-05-20T01:04:00.000-07:002007-05-20T01:05:22.571-07:00आरंभ.....<strong>भाईसाब</strong> हैं तो एक कस्बे के। लेकिन पिताजी की नौकरियों के चक्कर में कई जगहों के चक्कर काट चुके हैं। उनमें कई जगह का पानी और कई जगह की बानी है। और अब महानगर में हैं। फिर भी हर आदमी को कभी न कभी इस आम प्रश्न का सामना करना ही पड़ता है - वह सब तो ठीक है लेकिन आप मूलत: हैं कहां के? उनसे जब भी पूछता हूं कि आप कहां के हैं? वे इसे टाल जाते हैं। बस बचपन मंे जहां स्कूल किया था और कुछ कॉलेज के दिन कोई व्यंजन कोई खांटी स्वाद कुछ नहीं । बस ऐसे ही हैं जनाब। उनके इस अंदाज पर मुझे बड़ी कोफ्त होती है। आदमी जहां कहीं भी जन्मा हो वहां के गीत, संगीत, किस्से कहानियों से परिचित तो होता ही है। इसके बगैर बड़ा कैसे हो सकता है। मुझे अक्सर लगता है कि भाईसाब बस टाल रहे हैं कि कह दिया तो गीत सुनाना पड़ेगा या फिर कुछ बनाकर खिलाना पड़ेगा। <br />बहरहाल, गीत और व्यंजन ना आए तो भी चलता है। भाईसाब में और भी तो गुण हैं। मसलन वे कमाल के पेशेवर अंदाजवाले हैं। काम करते हैं तो भूत की तरह। उसमें कोई कोताही नहीं। और कुछ भी तकनीकी मसला हो उसको ठोक बजाकर सीखने में उनका सानी नहीं। विज्ञान की पढ़ाई की है। बस ग्रेजुएट भर हैं। लेकिन उनसे बात करो तो पता चलता है कि पहले क्यों लोग अपने घर के आगे बी.ए. की डिग्रियां लटकाते थे। अब तो बी.ए., बी.एस.सी वाले किलो के भाव भी कोई नहीं पूछता। <br />उनसे यह बात कहो तो फूले नहीं समाते। बताते हैं इसमें उस संस्था का योगदान है जहां मैंने छह सात साल काम किया। वे बार बार एकलव्य के सीखने के अंदाज को बयान करते हैं। कौन था उसका गुरू ? बस सीखने की चाहत और कड़ा परिश्रम। खुद करके देखना। जूझते हुए लक्ष्य को भेदना ! यह सब उनके तकिया कलाम हैं। लेकिन यह सब ऐसी बातें हैं जिन्हें गंभीर बनने के लिए कोई भी कहता रहता है। या जैसे ही कोई कम आत्मविश्वास वाला आदमी मिलता है उसको प्रवचन की मुद्रा में आप सुना सकते हैं। <br />भाईसाब बीच में सिनेमा को कोर्स कर आए। कुछ एक डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाईं। पहले एक बड़े फिल्मकार के साथ काम किया और अब खुद की अपनी एक कंपनी बना ली है। कुछ अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी झटक लाये हैं। यानी फिल्म की दुनिया में में इतना समय बिता लिया है कि उसके गुर, दांव पेंच में परिपक्व हो गए हैं। <br />अब उन्हें यह खूब पता है कि किससे कैसे बात करनी है। किससे कौन सा काम निकालना है और क्रेडिट नहीं देना है। कैसे लोगों से आइडियाज लेने हैं और अपनी चाशनी चढ़ाकर सिद्धांत टीप देना है। कोशिश यह करो की सामने वाले को उसकी खबर तक नहीं लगे। कैसे सामने वाले से ही बुलवाते रहो और अपनी बारी आए तो चुप्पे मियां बन जाओ। यानी सामनेवाले के सारे संसाधनों को मुफ्त में मार लो और कहो कि इस पर तो अभी काम करना है। इसमें पैसे की कोई गूंजाइश नहीं है। <br />कभी-कभी मन करता है उनसे पूछूं - भइया, इसमंे अभी पैसे की गूंजाइश नहीं है लेकिन ऐसा करार क्यों नहीं कर लें कि जब गूंजाइश होगी तब मेरा भी हिस्सा होगा। लेकिन अपन अभी इतने बेशर्म नहीं हो पाए हैं। भाइसाब को देखते हुए मुझे अक्सर विकास के नाम पर हो रही बहस याद आती है कि विकास के कुछ लोगों को शहादत तो देनी ही पड़ती है। बंधुवर विकास जब होना है तो शहादत ही क्यों विकास में हिस्सेदारी क्यों नहीं! मुझे ऐसे सवाल दागने का मौका नहीं मिला लेकिन आपको मिले तो चूकिएगा नहीं। और हां भाइसाब मिलें तो उनसे भी बेहिचक पूछिएगा, मेरी तरह संकोच न कीजिएगा! आमीन...लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-7439914647142494942007-05-16T11:52:00.000-07:002007-05-16T11:58:12.746-07:00भाईसाब और बहनजी के बारे में कुछ शब्द<em></em> भाईसाहब बड़े जिंदादिल इंसान हैं। वे हर कहीं हर वक्त नजर आ जाते हैं। यानी जब भी उन्हें याद करो वे हाजिर हैं। उनकी भूमिकाएं बदलती रहती हैं। जगहें बदलती रहती हैं। लेकिन वह हर हाल में परिस्थिति से जूझते नजर आते हैं। उनको कभी हताश भाव में नहीं देखा। जैसे उन्होंने निष्काम भाव साथ लिया हो । जीवन मरण, सुख दुख जीवन के उतार चढ़ाव उन्हें विचलित नहीं करते। उनके साथ रहना । उनसे बातें करना। उनके बारे में जानना हमेशा एक रोचक अनुभव रहा है। कोशि करुंगा आपसे बांटता रहूं । वैसे यह आपस की बात है। लेकिन उनके साथ बहन जी भी दिखती हैं। यहां बहन जी का कम जिक्र है लेकिन वे भी कोई कम नहीं हैं। मामला बिल्कुल बराबरी का है। तो मिलते हैं अगली बार सब्बा खैर....लाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6078083203725037713.post-72405090898064433612007-05-15T01:00:00.000-07:002007-05-15T01:01:20.901-07:00salamhello bhaeesab kaise haiलाल बहादुर ओझाhttp://www.blogger.com/profile/12955605647197097586noreply@blogger.com0