Monday, September 3, 2007

जाति जनेउ

भाई साब आज थोड़ सहज थे। चेहरा खिला हुआ था। और सचमुच मुस्‍कुरा रहे थे। मिलते ही हाथ बढ़ाया आओ भई क्‍या खबर है ?
आज सुबह उठना सार्थक रहा। टहलान में कोई तनाव नहीं होगा, मैंने सोचा।
शादी हो गयी है तुम्‍हारी ?
अचानक इस प्रश्‍न के लिए अपनी तैयारी नहीं थी। मैं थोड़ी देर रुका रहा ----
भाईसाब ने इंतजार नहीं किया मेरे उत्‍तर का ।
नहीं बताना चाहते हो तो कोई बात नहीं । मैंने तुम्‍हारी जाति नहीं पूछी है। शादी जिंदगी का बहुत अ‍हम फैसला है। कहावत है कि खेलो, कूदो, मौज करो लेकिन शादी के लिए उसे ही चुनना जिसके साथ बूढ़े हो सकते हो। क्‍या सबके साथ या फिर किसी के भी साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है।
उन्‍होंने मेरी ओर देखा और कहा बोलते कम हो यार।
मैंने मन ही मन सोचा भाईसाब आज फार्म में हैं उन्‍हें बोलने दिया जाए। आपलोगों में से किसी ने लिखा था कि बोलना या चुप रहना कोई स्‍थाई भाव नहीं है। जो एक दिन चुप रहता है अचानक ही किसी दिन बोलना शुरू कर देता है और हमेशा बोलने वाला भी कभी कभार चुप्‍पी साध लेता है। भाई साब आज बोल रहे थे। बिना किसी सवाल के। स्‍वत:स्‍फूर्त।
--- किसी के भी साथ बूढ़ा नहीं हुआ जा सकता। इसलिए आप चुनते हैं। शादी कोई शारीरिक, सामाजिक बंधन भर नहीं है वह एक आध्‍यात्मिक यात्रा भी है। स्‍पीरिचुअल जर्नी -- उन्‍होंने तपाक से अनुवाद किया। सिर्फ तन की नहीं मन और आत्‍मा की यात्रा--- जिसके साथ यह यात्रा की जा सकती है उसी के साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है।
---- बहुत कठिन लग रही होंगी ये बातें। लेकिन यह बहुत आसान है। अगर आप अंदर से साफ हैं। तो ऐसे किसी को चुनना कठिन नहीं है। वह मिलेगा और आप बंध जाएंगे। ऐसे कि बहुत पहले से मिले हुए हैं, कि उसमें और आपमें कोई दूरी नहीं है, ऐसे बंधन में किसी गांठ या रिचुअल की जरूरत नहीं होती है---
इस कड़ी में बहुत सारी उपमाएं और कडि़यां थीं तो बाग के कई चक्‍करों में चलती रही। अरविंद और मां आईं, गांधी और मीरा की चर्चा हुइ मुझे लगा भाइसाब आज ओशो को पढ़कर या सुनकर आएं है।
कैसा रहा ?
अचानक उनके इस सवाल ने मुझे वापस उनकी बातों पर बुला लिया।
--- इन बातों ने मुझे बहुत गहरे तक छुआ था। और ऐसी ही तलाश में भी था। कि सुबह के साथ घर में सितार की धून गूंजे। शाम को राग यमन के साथ रिलैक्‍स हों। और बाकी दिन ------
यह भी एक लंबी फेहरिश्‍त थी।
चुनाव ठीक ही था। जाति, धर्म और क्षेत्र के बाड़े से अलग। अपना चुना हुआ। और यह कोई बुरा नहीं है। लेकिन मुझे यह लगता है और इसे कई लेखकों ने लिखा है अभी अल्‍केमिस्‍ट में भी उस लेखक ने एक जगह कहा है कि अपनी भाषा, क्षेत्र और जाति का संगी हो तो बहुत कुछ करना नहीं पड़ता। हर संवाद की पृष्‍ठभूमि नहीं बननी पड़ती बिना कहे ही बहुत कुछ कहा सुना जा सकता है। इसलिए ---
मुझे लगा वे हे अर्जुन ना कह दें। लेकिन उनके कहने से पहले भी बहुत कुछ समझ में आ गया था। आप बराबरी के सपने देखो, आदर्श समाज की कल्‍पना करो लेकिन उसके लिए जो दर्द झेलना पड़ता है वह मत लो । मौका आए तो पतली गली से निकल जाओ। इसको कहते हैं चूल्‍हे की बात कुछ और चौके की बात कुछ और---। कई बार ऐसा लगता है कि जो बोला या लिखा जा रहा है उसमें से बहुत का महत्‍व इसीलिए घट गया है या फिर वह किताबी और मंचीय हो कर रह जाता है क्‍योंकि वह हमारे व्‍यवहार में कहीं नहीं होता।

1 comment:

Shastri JC Philip said...

"कहावत है कि खेलो, कूदो, मौज करो लेकिन शादी के लिए उसे ही चुनना जिसके साथ बूढ़े हो सकते हो। क्‍या सबके साथ या फिर किसी के भी साथ बूढ़ा हुआ जा सकता है।"

कमाल हो गया. दो वाक्य में आपने सहस्त्र वर्षों का निचोडा हुआ सत्य ऐसे सशक्त तरीके से रखा कि व्याख्या की भी जरूरत नहीं है -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!