भाई साब पूरे दिन बेचैन रहे। क्या करें कहां जाएं। घर मं उमस थी। ध्यान दीजिएगा घर में उमस थी। जब उन्होंने खुद से ही ऐसा कहा तो लगा कि गलत कह रहे हों। बाहर मौसम अच्छा था हवा चल रही थी। और दिल्ली के मन के विपरीत बाहर निकलकर आदमी थोड़ा सुकुन से टहल सकता था। लेकिन भाईसाब बाहर नहीं निकल पा रहे थे। ऐसी कोई बात नहीं थी कि दरवाजा न खोल सकें या खुद टहल नहीं सकते थे। परंतु अजीब सी स्थति में जकड़े हुए थे। यह कोई बाहरी आकलन नहीं था वह खुद भी अपनी बातों में इस अनुभव की चर्चा कर चुके थे। वह अक्सर चुप रहते। लेकिन उन्हें गौर से कोई देखे तो लगेगा कि वे हमेशा कुछ कहना चाह रहे हैं। लेकिन बात बाहर नहीं आ पा रही है।
एक दिन उन्होंने अपनी डायरी निकालीं। बल्कि बहुत सारी डायरियां निकाली और सामने रखते गए। हर साल की फरवरी में उनकी डायरी की शुरुआत होती थी और कुल जमा चार दिनों की लिखाई के बाद समाप्त।
यह क्या है भाईसाब
डायरी का मतलब ऐसा तो कहीं नहीं है कि हमेशा सर्वश्रेष्ठ ही दर्ज किया जाए। या फिर आप खुद सर्वश्रेष्ठ की कल्पना भी कैसे कर सकते? आप तो बस लिख सकते हैं जैसा अपने देखा जैसा आपने महसूस किया। और इतनी लंबी उम्र इतने संसाधन, इतने मैके फिर भी कोरे पन्ने?
अपने आप को कबीर मानते होंगे, मन में कौतुक जागा। लेकिन व्यक्त नहीं कर सका। पता नहीं बुरा मान जाएं।
पन्ने पलट रहा था वे कहने लगे। पिछले संस्थान में जहां काम करता था। बड़े आत्मीय और सच्चे लोग थे। आंखें देखकर समझ जाते थे - एक ने कहा था। तुम्हें देखकर ऐसा लगता है कि बहुत भीतर कहीं फंसे हुए हो।
--- और आपने मान लिया कि सचमुच फंसे हुए हैं। भाईसाब निर्भार हो जाइए। यह तो एकदम से वैसे लोगों की बात है जिनके सामने किसी समस्या का नाम लो , बीमारी का नाम लो, कोई अनुभव रखो तपाक से बोलते हैं - हां, मुझे भी ऐसा है, मैं भी यह महसूस करता हूं। अब पता नहीं कितने बरसों पहले किसी ने कहा कि आप अंदर से कहीं फंसे हुए लगते हो और आपने मान लिया। मान ही नहीं लिया पकइ़कर बैठ गए। ---
उनके चेहरे पर हल्की सी हंसी आई। उसी तरह जैसे वह हंसना तो खुल कर चाहते थे लेकिन वह खुलकर हंसना कहीं अंटक गया और उसके धक्के भर से चेहरे पर एक मुस्कान भर तैर गई।
भाईसाब आप हंसते हुए खूबसूरत लगते हैं। और बोलते हैं तो बिल्कुल सहज। आप लिखेंगे तो बहुत लोग मुक्त हो सकेंगे। लिखिए अपनी मुक्ति के लिए न सही औरों के लिए ही। बेलाग लिखिए। बेहिचक लिखिए। बिंदास लिखिए।
और आज कल मैं भाईसाब के लिखने का इंतजार कर रहा हूं।
Friday, August 3, 2007
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1 comment:
"आपकी नि:शंक भागीदारी से संगत को सार्थकता मिलेगी। कहते सुनते चलने से हम एक दूसरे को मजबूत कर सकेंगे। "
चलिये हम आ गये हैं पठन/टिप्पणी द्वारा संगत करने के लिये -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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